लफ़्ज़ों के चार कारीगर सियाह रात में बैठे....
बुझती हुई अंगीठी में नज़्में फूँका करते थे
बड़ी ऊँची अलावन तपती थी.… भभक कर
उठती थी आग सर्द हवाओं में .....
ये काम अब धीमा पड़ गया है …… आजकल
मंदी है नज़्मों के व्यापार में ....
एक अमावस है जो आती नहीं
की रात सियाह हो
अंगीठी फिर से जले…
कोई नज़्म फिर से रौशन हो…।
बुझती हुई अंगीठी में नज़्में फूँका करते थे
बड़ी ऊँची अलावन तपती थी.… भभक कर
उठती थी आग सर्द हवाओं में .....
ये काम अब धीमा पड़ गया है …… आजकल
मंदी है नज़्मों के व्यापार में ....
एक अमावस है जो आती नहीं
की रात सियाह हो
अंगीठी फिर से जले…
कोई नज़्म फिर से रौशन हो…।