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Friday, May 21, 2010

दो चार घडी की रात

आज विगत की झान्झारियों पर कम्बु नए दमकते हैं,
और पुरानी दीवारों पर झालर नए लटकते हैं ||
रात घटित कुछ हुई विभा चंचल उमगी विश्वस्त प्रखर,
कुछ पेड़ों पर आये किसलय, उर में पराग स्वछन्द भ्रमर ||१||

किन्तु उर की कथा नहीं यह स्वमुख से कहने की है,
हाय ! करें क्या, दशा मौन भी तो यह ना रहने की है||
सच है आज स्वर नए , गीत उजले-उजले से लगते हैं,
और अकर्मों के प्याले धुंधले-धुंधले से लगते हैं ||२||

कुछ पल भर को संगीत नया उद्वेलित सा कर जाता है,
जब आती तब की याद हाय, उर; उर में ही कट जाता है ||
कुछ कहो; नहीं अब मौन रहो, इस विष को अवरोधूं कैसे?
संतप्त ह्रदय की पीड़ा को, तुम ही बोलो बोधूं कैसे? ||३||

जिस पथ पल निकल पड़े थे वर्षों पूर्व अबी भी बाकी है,
कुछ गलती अपनी हाय, और कुछ मौसम की बदहाली है ||
किन्तु शिखर शोभित, जगमग सा क्षितिज प्रभा उजलता है ,
देख उसे मन का वैभव, विश्वास हिलोरें लाता है ||४||

है सत्य शांति का पथ किंचित भी शांत नहीं रह पाता है,
आपद से धूमिल नर किन्तु कुछ और निखर सा आता है ||
हाँ, सुगम नहीं थी राह किन्तु अब शिखर प्रलोभन देता है,
उकसाता है, उत्साह गरज कर मन आतुर हो जाता है ||५||

कुछ चार घडी की रात अभी दो चार कदम बस चलना है,
नर की भारी उछ्वासों से व्याधि पाषाण पिघलना है ||
हाँ! वही श्रिंग जो धमक रहा विधु की धीमी सी काया में,
हो जाएगा लुप्त प्राप्त कर तुम्हे तुम्हारी माया में ||६||