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Sunday, December 7, 2014

अमावस पर कविता

रौशनी मद्धिम है आज फिर शहर में,
हवा दीवारों से चोटें खा के चीखती है अँधेरे में।
शायद चाँद ने वापस धोखा किया है ……  अमावस ही है। ।


कुछ बिका नहीं आज बाज़ारों में,
रोशिनी की ही कीमत लगाई है लंगड़े बनिए ने।
व्यापारी सारे भारी ही लौटे हैं घरों में आज। ।

कुछ चौदह दिनों में ही रोशिनी यूं खर्ची है निगोड़े चाँद ने,
गोरी का आँगन अंधेर लगता है आज।
इतनी बेफिक्री से तो अनाज ना खर्चा हमने भूखे बच्चों पर.....

(अधूरी)