Pageviews

Friday, July 17, 2015

नज़्म

जो दिल में दर्द है , उतारो कागज़ पर -
तो नज़्म जनमती है ……
तब तक जलती है हर रोज़ शायर के ज़हन में।

यह कैसी आग है जो न जलाती है दिन में
और न रात को रौशन ही करती है ……
बस भभकती रहती है हवा में जूझते चराग सी।

नवजात ही होती है , कमज़ोर भी
पहले पहल
तराशना पड़ता है बहुत मोहब्बत से
हर रोज़
मानी सिखाओ तो नज़्म बोलना सीखती है ……
बात करती है तुमसे, कभी  डाँट भी देती है
भड़ककर।

पलती है हर दिन -
सियाही पीती है , बड़ी होती है ……
दो चार  यारों का काफिला बनाकर -
दीवान बनाती है, नज़्म।

मगर कुछ  ऐसी अनाथ भी हो जातीँ  हैं
जनमकर ……
ना मानी समझतीं हैं प्यार के ना
बात करतीं हैं पलटकर ……

बस मरे शायर सी ही
बाँझ होतीं  है ……
उनसे  कोई नज़्म नहीं पनपती।

मेरी ऐसी ही एक नज़्म
स्टेशन के पास भूली बिसरी
आज भी ज़ुबान ढूंढती है  ……
जिसको  हाथ फेरकर  सर पे , अपनाया था तुमने ……
मानी दिए थे।  

No comments: